जब भी मन दौड़ता था इधर उधर
कुछ लिख लेता था डायरी के आख़री पन्ने पे
कभी अपना नाम, कभी कोई तस्वीर
या फिर कुछ लकीरें आड़ी तिरछी
कभी सोचा नही था की क्या लिख रहा हूं
आज जब पलट के देखता हूं तो अफ़सोस होता है
की क्यूँ नही संभाले वो पन्ने..
उसमे मेरा बचपन था..
क्लास में पीछे बैठ कर दोस्तों संग खेल था
टीचर की कार्टून थी, पॉकेट मनी का हिसाब था
ओर बहुत से सवालों का जवाब था..
उसमे मेरा बचपन था..
आने वाले दिनों के सपने थे..
दूर थे लेकिन फिर अभी अपने थे
पा ही लिए थे वो सपने जो लिखें थे पन्नों में
अब ढूंढ़ने पर भी नही मिलते अपनों में
पन्ने भर जाने पर अक्सर फाड़ के फेंक दिया करता
काश कही दिल के कोने में इसे गाड़ दिया होता
कम से कम पलट के देख तो लेता कि लिखा क्या है..
उसे मिटा के सही कर देता जो गलत हुआ है
आजकल शुरुआत ही पहले पन्ने से होती है
सब कुछ ऑनलाइन स्मार्ट बनने से होती है
मौका ही कहाँ है कि rough में कुछ लिख लें
ओर बाद में ज़िन्दगी को fair कर लें
ना जाने वो डायरी अब कहाँ होगी..
उस आख़री पन्ने की हकीकत क्या होगी
पड़ा होगा किसी कोने में अकेला सा तन्हा
पूरी ज़िन्दगी समेटे हुए था वो डायरी का आख़री पन्ना